#कृषि_और_नक्षत्र
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प्राचीन काल से आज तक मनुष्य अपनी क्षुधा को शांत करने के लिए प्रकृति पर अवलम्बित रहा है। प्रकृति ने भी उसे अपनी ममतामयी गोद में कृषि के माध्यम से शस्य (धान्य) से समृद्ध बनाया। किन्तु वृष्टि, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, दुर्भिक्ष आदि अनेक प्राकृतिक अपदाओं का भय भी अक्सर देखा ही जा रहा है और इनसे निपटने के लिए ज्योतिष की सहायता ली जा सकती है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र इस मामले में बेजोड़ है। ज्योतिष शास्त्रानुसार प्रत्येक घटना के घटित होने के पहले प्रकृति में कुछ विकार उत्पन्न देखे जाते हैं जिनकी सही-सही पहचान से व्यक्ति भावी शुभ-अशुभ घटनाओं का सरलतापूर्वक परिज्ञान कर सकता हैं जैसे उल्कापात मेघ, वात, मेघगर्भ लक्षण आदि।
आषाढ़ का तपता हुआ दिन जब सब घरों में छिपे रहते है उसी समयकाल में ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाला एक कृषक धान के बीजों को उपचारित करने में लगा होता है ताकि समय से बीज पड़ जाए बेहन के लिए!!
उस समय उसके दिमाग मे उस तपती गर्मी को लेकर तनिक भी भय नही होता कि आगे वर्षा होगी या नही!
धान खरीफ की फसल का एक प्रमुख फसल है , खरीफ की और भी फसलें है जैसे बाजरा, मक्का, अगहनिया, अरहर इत्यादि लेकिन बर्षा आधारित फसल धान ही है
जैसे ही रोहिणी नक्षत्र का प्रादुर्भाव होता है किसान की चपलता बढ़ जाती है और खेत को जोत कर धान के बीज के लिए तैयार करता है।
धान का बीज रोहिणी के ही क्यो डालना चाहिए इसके लिए हमे रोहिणी नक्षत्र के बारे में जानना होगा।
भारतीय वैदिक ज्योतिष में रोहिणी को एक उदार, मधुर, मनमोहक तथा शुभ नक्षत्र माना जाता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार की जाने वाली गणनाओं के लिए महत्वपूर्ण माने जाने वाले सताइस नक्षत्रों में रोहिणी को चौथा स्थान दिया जाता है। रोहिणी का शाब्दिक अर्थ जानने के लिए हमें इस शब्द के मूल से इसका अर्थ समझना होगा। रोह शब्द का अर्थ है विकास अथवा उन्नति करना तथा रोहण शब्द का अर्थ है किसी प्रकार की सवारी करना अथवा सवारी करने वाला और इसी के अनुसार रोहिणी शब्द का अर्थ बनता है सवारी करने वाली। रोहिणी के मूल शब्द रोह के अर्थ को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह सवारी करने वाली स्त्री उन्नति तथा विकास की सूचक है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार दो बैलों के द्वारा खींची जाने वाली बैलगाड़ी को रोहिणी नक्षत्र का प्रतीक चिन्ह माना जाता है। प्राचीन समयों में बैल को कृषि तथा व्यापार से संबंधित बहुत से क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता था तथा बैलगाड़ियों का प्रयोग पक चुकी खेती को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए तथा व्यापार से जुड़ी अन्य वस्तुओं को भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए किया जाता था जिसके कारण बैल तथा बैलगाड़ी प्राचीन काल की कृषि व्यवस्था तथा व्यापार व्यवस्था के स्तंभ माने जाते थे। रोहिणी नक्षत्र के सभी चार चरण वृषभ राशि में स्थित होते हैं तथा वैदिक ज्योतिष में वृषभ राशि को कृषि उत्पादन, पशु पालन तथा व्यापार से जुड़ी एक राशि माना जाता है। वृषभ शब्द का अर्थ ही बैल होता है तथा इसी के अनुसार वृषभ राशि का प्रतीक चिन्ह भी वैदिक ज्योतिष के अनुसार बैल को ही माना जाता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार वृषभ राशि का स्वामी शुक्र को माना जाता है तथा शुक्र ग्रह को भी वैदिक ज्योतिष के अनुसार कृषि, सुंदरता, रचनात्मकता तथा व्यापार के साथ जुड़ा हुआ एक ग्रह माना जाता है।
इन सभी तथ्यों के कारण रोहिणी नक्षत्र पर बैल के गुणों का बहुत प्रभाव रहता है जिसके चलते इस नक्षत्र में बैल के सहज गुण जैसे कि परिश्रम करना, सहज स्वभाव का होना, दृढ़ इच्छा शक्ति का स्वामी होना तथा अन्य कई गुण भी पाए जाते हैं। बैलगाड़ी का प्रभाव होने के कारण रोहिणी नक्षत्र को व्यापार, कृषि उत्पादन, पशु पालन तथा अन्य ऐसी विशेषताओं के साथ भी जोड़ा जाता है। कुछ वैदिक ज्योतिषी यह मानते हैं कि बैलगाड़ी का चलना समय के पहिये का चलना भी माना जा सकता है तथा यहां इस पहिये के चलने का अर्थ विकास, उन्नति तथा सृजन से भी लिया जाता है जिसके कारण वैदिक ज्योतिष में रोहिणी को सृजन, विकास तथा उन्नति के साथ भी जोड़ा जाता है। शुक्र ग्रह का प्रभाव इस नक्षत्र में रचनात्मकता, सुंदरता तथा सृजन करने की शक्ति पैदा कर देता है जिसके कारण इस नक्षत्र में इन विशेषताओं की प्रबलता बढ़ जाती है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार त्रिदेवों में सृष्टि के जनक तथा रचियता भगवान ब्रह्मा जी को रोहिणी नक्षत्र के अधिपति देवता माना जाता है जिसके कारण इस नक्षत्र पर ब्रह्मा जी का भी प्रबल प्रभाव रहता है। ब्रहमा जी के प्रभाव में आने के कारण रोहिणी नक्षत्र में सृजन करने की प्रबल शक्ति आ जाती है तथा यह नक्षत्र वैदिक ज्योतिष के अनुसार प्रत्येक प्रकार के सृजन, उत्पादन, निर्माण तथ विकास को प्रोत्साहित करता है।
जैसे ही बीज खेत मे पड़ता है किसान के पास असंख्य पौध रूपी शिशुओं की पालन पोषण की जिम्मेदारी आ जाती।
जब पौधे 10 या 15 दिन के होते तब "मृगशिरा नक्षत्र रूपी एक भयंकर ताप वाले समय काल से पौधों की अपने जीवन को लेकर लड़ाई चलती है जहाँ सूर्य की असीम ऊर्जा पौधो को सुखा लेने को आतुर होती है तो किसान अपने मेहनत और स्वेद से उसको नमी प्रदान किये रहता है ।
कहा जाता है कि यदि मृगशिरा नक्षत्र में तपन ज्यादा होती है तो वर्षा अच्छी होती है। अतः किसान सुखद भविष्य को लेकर मृगशिरा का ताप सह लेता है!
"अदित्यात् जायते वृष्टि"।
अर्थात सूर्य से तपन, तपन से ऊर्जा, ऊर्जा से वृष्टि, वृष्टि से हरियाली, हरियाली से खुशहाली।
आद्रा नक्षत्र से लेकर और अनुराधा तक धान के फसल में नक्षत्रीय ज्योतिष का बड़ा उपयोग होता है जब आद्रा की रिमझीम फुहारे धरती के सीने को शीतल कर देती है तब किसान अपने कृषि यंत्रों या आयुधो के साथ खेतो में रमण करने लगता है।
जोताई करने और रोपनी के बाद कितना भी कृत्रिम पानी की सुविधा हो लेकिन अगर निश्चित किये गए नक्षत्रों में पानी नही बरसता तो कृषि में हानि तय है।
हमारे पूर्वजो ने कुछ लोकोक्तियां और श्लोकों के माध्यम से हमे जानकारी देने का अदभुत प्रयास किया है जो आज के समय मे विलोपित हो रही है!
यदां जनिनो मेघ: शान्तायम दिशि दृश्यते।
स्निग्धो मंदगतिश्र्वापि तदा विधाज्जलं शुभम्।
यदि अंजन के समान गहरे काले मेघ पश्चिम दिशा में दिखाई पड़े और ये चिकने तथा मंद गति वाले हों तो भारी जल वृष्टि होती है।
पीतपुष्पनिभो यस्तु यदा मेघ: समुत्थीत:।
शंतायम यदि दृश्यते स्निग्धो वर्षं तदुच्यते।।
पीले पुष्प के समान स्निग्ध मेघ पश्चिम दिशा में स्थित हों तो जल की तत्काल वृष्टि कराते हैं। ये वर्षा के कारक माने जाते हैं ।
रक्तवर्णों यदा मेघ: शान्तया दिशि दृश्यते।
स्निग्धो मंदगतिश्र्वापि तदा विद्याजलं शुभम्।।
यदि लाल वर्ण के तथा स्निग्ध और मंद गति वाले मेघ पश्चिम दिशा में दिखाई दें तो अच्छी जल वृष्टि होती हैं ।
तिथौ मुहूर्तकारणे नक्षत्रे शकुन शुभे।
संभवन्ति यदा मेघा: पापदास्ते भयंकरा:।।
अशुभ तिथि, मुहूर्त कारण, नक्षत्र और शकुन में यदि मेघ आकाश में आच्छादित हों तो भयंकर पाप का फल (अनिष्ट) देने वाले होते हैं ।
वराह संहिता में वराहमिहिर ने 34 अध्याय के 4-5 श्लोक में परिवेश के सम्बन्ध में बताते हुए कहा है कि चांदी और तेल के समान वर्ण वाले परिवेष सुभिक्ष करने वाले होते हैं ।
वर्षा भय तथा क्षेम राज्ञो जय पराजयम।
मरुत: कुरुते लोके जन्तूनां पुण्य पापजाम।।
वायु सांसारिक प्राणियों के पुण्य एवं पाप से उत्पन्न होने वाले वर्षण, भय, क्षेम और राजा की जय-पराजय को सूचित करती हैं |
वायु के चलने से भी प्राचीन ज्योतिषियों ने अनेक फलादेश कियें हैं जिसमे कृषि तथा वर्षा, सुभिक्ष आदि का वर्णन किया गया हैं। भद्रबाहू के निमित ग्रन्थ में उल्लेख हैं कि-
आषाढ़ी पूर्णिमायां तु पूर्व वातो यदा भवेत्।
प्रवाति दिवसं सर्व सुवृष्टि: सुषमा तदा।।
आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन पूर्व दिशा की वायु यदि सारे दिन चले तो वर्षा काल में अच्छी वर्षा होती हैं और वह वर्ष अच्छा व्यतीत होता हैं ।
आषाढ़ी पूर्णिमायां तु वायु: स्यादुत्तरो यदि।
वापयेत सर्वबीजनी शस्यं ज्येष्ठ समृध्यति।।
आषाढ़ी पूर्णिमा को उत्तर दिशा की वायु चले तो सभी प्रकार के बीजों को बो देना चाहिये क्योंकि उक्त प्रकार की वायु में बोये गए बीज बहुतायत से उत्पन्न होते हैं। किसी भी दिशा का वायु यदि साड़े सात दिन तक लगातार चले तो उसे महान भय का सूचक जानना चाहिये। इस प्रकार की वायु अतिवृष्टि की सूचक होती हैं ।
सर्व लक्षण संपन्न मेघा मुख्या जलावाहा:।
मुहुर्तादुत्थितो वायुर्हान्या सर्वोआपी नैऋत:।।
सभी शुभ लक्षण से संपन्न जल को धारण करने वाले जो मुख्य मेघ हैं, उन्हें भी नैऋत्य दिशा का उठा हुआ पूर्व पवन एक मुहूर्त में नष्ट कर देता हैं ।
नारद पुराण के त्रिस्कन्ध ज्योतिष सहिंता प्रकरण में ग्रह के माध्यम से वर्षा के सम्बन्ध में कहा गया हैं-
मंगल-
जिस दिन मंगल का उदय हो और उदय के नक्षत्र से दसवे, ग्यारहवे तथा बारहवे नक्षत्र में मंगल वक्र हो तो (अश्र्वमुख) नामक वक्र होता हैं। उसमें अन्न व वर्षा का नाश होता है।
बुध-
1. यदि आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा इन नक्षत्रों में बुध दृश्य हो तो वर्षा नहींं होती हैं और अकाल होता हैं ।
2. हस्त से छ: नक्षत्रों में बुध के रहने से लोक-कल्याण, सुभिक्ष व आरोग्य प्राप्ति होती हैं ।
बृहस्पति- बृहस्पति जब नक्षत्रों के उत्तर चले तो सुभिक्ष व कल्याणकारी तथा बायें हो तो विपरीत परिणाम देता हैं ।
शुक्र-
1. शुक्र जब बुध के साथ रहता हैं तब सुवृष्टि (अच्छी वर्षा) का कारक होता हैं ।
2. कृष्ण पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या में यदि शुक्र का उदय हो या अस्त हो तो पृथ्वी जल से परिपूर्ण रहती हैं।
शनि-
श्रवण, स्वाति, हस्त, आद्र्रा, भरणी और पूर्वाषाढ़ इन नक्षत्रों में विचारने वाला शनि मनुष्य के लिए सुभिक्ष व खेती की उपज बढ़ाने वाला होता है।
इस नक्षत्रीय प्रभावों और लोकोक्तियों को कम शब्दों में समेटना असम्भव है लेकिन प्रयास है आवश्यक जानकारियां सबलोग जाने!! ये एक छोटी सी कोशिस है अपने पारम्परिक और नक्षत्रीय ज्योतिष पर आधारित कृषि के ऊपर लेख की !! मैं कोई लेखक नही हूँ अतः त्रुटियां मिलेंगी !! सुधार के लिए आपलोगों का सहयोग आपेक्षित है!!
अगले भाग में मिलेंगे पारम्परिक लोकोक्तियों को लेकर!!
क्रमशः....
अनूप राय
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प्राचीन काल से आज तक मनुष्य अपनी क्षुधा को शांत करने के लिए प्रकृति पर अवलम्बित रहा है। प्रकृति ने भी उसे अपनी ममतामयी गोद में कृषि के माध्यम से शस्य (धान्य) से समृद्ध बनाया। किन्तु वृष्टि, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, दुर्भिक्ष आदि अनेक प्राकृतिक अपदाओं का भय भी अक्सर देखा ही जा रहा है और इनसे निपटने के लिए ज्योतिष की सहायता ली जा सकती है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र इस मामले में बेजोड़ है। ज्योतिष शास्त्रानुसार प्रत्येक घटना के घटित होने के पहले प्रकृति में कुछ विकार उत्पन्न देखे जाते हैं जिनकी सही-सही पहचान से व्यक्ति भावी शुभ-अशुभ घटनाओं का सरलतापूर्वक परिज्ञान कर सकता हैं जैसे उल्कापात मेघ, वात, मेघगर्भ लक्षण आदि।
आषाढ़ का तपता हुआ दिन जब सब घरों में छिपे रहते है उसी समयकाल में ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाला एक कृषक धान के बीजों को उपचारित करने में लगा होता है ताकि समय से बीज पड़ जाए बेहन के लिए!!
उस समय उसके दिमाग मे उस तपती गर्मी को लेकर तनिक भी भय नही होता कि आगे वर्षा होगी या नही!
धान खरीफ की फसल का एक प्रमुख फसल है , खरीफ की और भी फसलें है जैसे बाजरा, मक्का, अगहनिया, अरहर इत्यादि लेकिन बर्षा आधारित फसल धान ही है
जैसे ही रोहिणी नक्षत्र का प्रादुर्भाव होता है किसान की चपलता बढ़ जाती है और खेत को जोत कर धान के बीज के लिए तैयार करता है।
धान का बीज रोहिणी के ही क्यो डालना चाहिए इसके लिए हमे रोहिणी नक्षत्र के बारे में जानना होगा।
भारतीय वैदिक ज्योतिष में रोहिणी को एक उदार, मधुर, मनमोहक तथा शुभ नक्षत्र माना जाता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार की जाने वाली गणनाओं के लिए महत्वपूर्ण माने जाने वाले सताइस नक्षत्रों में रोहिणी को चौथा स्थान दिया जाता है। रोहिणी का शाब्दिक अर्थ जानने के लिए हमें इस शब्द के मूल से इसका अर्थ समझना होगा। रोह शब्द का अर्थ है विकास अथवा उन्नति करना तथा रोहण शब्द का अर्थ है किसी प्रकार की सवारी करना अथवा सवारी करने वाला और इसी के अनुसार रोहिणी शब्द का अर्थ बनता है सवारी करने वाली। रोहिणी के मूल शब्द रोह के अर्थ को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह सवारी करने वाली स्त्री उन्नति तथा विकास की सूचक है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार दो बैलों के द्वारा खींची जाने वाली बैलगाड़ी को रोहिणी नक्षत्र का प्रतीक चिन्ह माना जाता है। प्राचीन समयों में बैल को कृषि तथा व्यापार से संबंधित बहुत से क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता था तथा बैलगाड़ियों का प्रयोग पक चुकी खेती को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए तथा व्यापार से जुड़ी अन्य वस्तुओं को भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए किया जाता था जिसके कारण बैल तथा बैलगाड़ी प्राचीन काल की कृषि व्यवस्था तथा व्यापार व्यवस्था के स्तंभ माने जाते थे। रोहिणी नक्षत्र के सभी चार चरण वृषभ राशि में स्थित होते हैं तथा वैदिक ज्योतिष में वृषभ राशि को कृषि उत्पादन, पशु पालन तथा व्यापार से जुड़ी एक राशि माना जाता है। वृषभ शब्द का अर्थ ही बैल होता है तथा इसी के अनुसार वृषभ राशि का प्रतीक चिन्ह भी वैदिक ज्योतिष के अनुसार बैल को ही माना जाता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार वृषभ राशि का स्वामी शुक्र को माना जाता है तथा शुक्र ग्रह को भी वैदिक ज्योतिष के अनुसार कृषि, सुंदरता, रचनात्मकता तथा व्यापार के साथ जुड़ा हुआ एक ग्रह माना जाता है।
इन सभी तथ्यों के कारण रोहिणी नक्षत्र पर बैल के गुणों का बहुत प्रभाव रहता है जिसके चलते इस नक्षत्र में बैल के सहज गुण जैसे कि परिश्रम करना, सहज स्वभाव का होना, दृढ़ इच्छा शक्ति का स्वामी होना तथा अन्य कई गुण भी पाए जाते हैं। बैलगाड़ी का प्रभाव होने के कारण रोहिणी नक्षत्र को व्यापार, कृषि उत्पादन, पशु पालन तथा अन्य ऐसी विशेषताओं के साथ भी जोड़ा जाता है। कुछ वैदिक ज्योतिषी यह मानते हैं कि बैलगाड़ी का चलना समय के पहिये का चलना भी माना जा सकता है तथा यहां इस पहिये के चलने का अर्थ विकास, उन्नति तथा सृजन से भी लिया जाता है जिसके कारण वैदिक ज्योतिष में रोहिणी को सृजन, विकास तथा उन्नति के साथ भी जोड़ा जाता है। शुक्र ग्रह का प्रभाव इस नक्षत्र में रचनात्मकता, सुंदरता तथा सृजन करने की शक्ति पैदा कर देता है जिसके कारण इस नक्षत्र में इन विशेषताओं की प्रबलता बढ़ जाती है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार त्रिदेवों में सृष्टि के जनक तथा रचियता भगवान ब्रह्मा जी को रोहिणी नक्षत्र के अधिपति देवता माना जाता है जिसके कारण इस नक्षत्र पर ब्रह्मा जी का भी प्रबल प्रभाव रहता है। ब्रहमा जी के प्रभाव में आने के कारण रोहिणी नक्षत्र में सृजन करने की प्रबल शक्ति आ जाती है तथा यह नक्षत्र वैदिक ज्योतिष के अनुसार प्रत्येक प्रकार के सृजन, उत्पादन, निर्माण तथ विकास को प्रोत्साहित करता है।
जैसे ही बीज खेत मे पड़ता है किसान के पास असंख्य पौध रूपी शिशुओं की पालन पोषण की जिम्मेदारी आ जाती।
जब पौधे 10 या 15 दिन के होते तब "मृगशिरा नक्षत्र रूपी एक भयंकर ताप वाले समय काल से पौधों की अपने जीवन को लेकर लड़ाई चलती है जहाँ सूर्य की असीम ऊर्जा पौधो को सुखा लेने को आतुर होती है तो किसान अपने मेहनत और स्वेद से उसको नमी प्रदान किये रहता है ।
कहा जाता है कि यदि मृगशिरा नक्षत्र में तपन ज्यादा होती है तो वर्षा अच्छी होती है। अतः किसान सुखद भविष्य को लेकर मृगशिरा का ताप सह लेता है!
"अदित्यात् जायते वृष्टि"।
अर्थात सूर्य से तपन, तपन से ऊर्जा, ऊर्जा से वृष्टि, वृष्टि से हरियाली, हरियाली से खुशहाली।
आद्रा नक्षत्र से लेकर और अनुराधा तक धान के फसल में नक्षत्रीय ज्योतिष का बड़ा उपयोग होता है जब आद्रा की रिमझीम फुहारे धरती के सीने को शीतल कर देती है तब किसान अपने कृषि यंत्रों या आयुधो के साथ खेतो में रमण करने लगता है।
जोताई करने और रोपनी के बाद कितना भी कृत्रिम पानी की सुविधा हो लेकिन अगर निश्चित किये गए नक्षत्रों में पानी नही बरसता तो कृषि में हानि तय है।
हमारे पूर्वजो ने कुछ लोकोक्तियां और श्लोकों के माध्यम से हमे जानकारी देने का अदभुत प्रयास किया है जो आज के समय मे विलोपित हो रही है!
यदां जनिनो मेघ: शान्तायम दिशि दृश्यते।
स्निग्धो मंदगतिश्र्वापि तदा विधाज्जलं शुभम्।
यदि अंजन के समान गहरे काले मेघ पश्चिम दिशा में दिखाई पड़े और ये चिकने तथा मंद गति वाले हों तो भारी जल वृष्टि होती है।
पीतपुष्पनिभो यस्तु यदा मेघ: समुत्थीत:।
शंतायम यदि दृश्यते स्निग्धो वर्षं तदुच्यते।।
पीले पुष्प के समान स्निग्ध मेघ पश्चिम दिशा में स्थित हों तो जल की तत्काल वृष्टि कराते हैं। ये वर्षा के कारक माने जाते हैं ।
रक्तवर्णों यदा मेघ: शान्तया दिशि दृश्यते।
स्निग्धो मंदगतिश्र्वापि तदा विद्याजलं शुभम्।।
यदि लाल वर्ण के तथा स्निग्ध और मंद गति वाले मेघ पश्चिम दिशा में दिखाई दें तो अच्छी जल वृष्टि होती हैं ।
तिथौ मुहूर्तकारणे नक्षत्रे शकुन शुभे।
संभवन्ति यदा मेघा: पापदास्ते भयंकरा:।।
अशुभ तिथि, मुहूर्त कारण, नक्षत्र और शकुन में यदि मेघ आकाश में आच्छादित हों तो भयंकर पाप का फल (अनिष्ट) देने वाले होते हैं ।
वराह संहिता में वराहमिहिर ने 34 अध्याय के 4-5 श्लोक में परिवेश के सम्बन्ध में बताते हुए कहा है कि चांदी और तेल के समान वर्ण वाले परिवेष सुभिक्ष करने वाले होते हैं ।
वर्षा भय तथा क्षेम राज्ञो जय पराजयम।
मरुत: कुरुते लोके जन्तूनां पुण्य पापजाम।।
वायु सांसारिक प्राणियों के पुण्य एवं पाप से उत्पन्न होने वाले वर्षण, भय, क्षेम और राजा की जय-पराजय को सूचित करती हैं |
वायु के चलने से भी प्राचीन ज्योतिषियों ने अनेक फलादेश कियें हैं जिसमे कृषि तथा वर्षा, सुभिक्ष आदि का वर्णन किया गया हैं। भद्रबाहू के निमित ग्रन्थ में उल्लेख हैं कि-
आषाढ़ी पूर्णिमायां तु पूर्व वातो यदा भवेत्।
प्रवाति दिवसं सर्व सुवृष्टि: सुषमा तदा।।
आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन पूर्व दिशा की वायु यदि सारे दिन चले तो वर्षा काल में अच्छी वर्षा होती हैं और वह वर्ष अच्छा व्यतीत होता हैं ।
आषाढ़ी पूर्णिमायां तु वायु: स्यादुत्तरो यदि।
वापयेत सर्वबीजनी शस्यं ज्येष्ठ समृध्यति।।
आषाढ़ी पूर्णिमा को उत्तर दिशा की वायु चले तो सभी प्रकार के बीजों को बो देना चाहिये क्योंकि उक्त प्रकार की वायु में बोये गए बीज बहुतायत से उत्पन्न होते हैं। किसी भी दिशा का वायु यदि साड़े सात दिन तक लगातार चले तो उसे महान भय का सूचक जानना चाहिये। इस प्रकार की वायु अतिवृष्टि की सूचक होती हैं ।
सर्व लक्षण संपन्न मेघा मुख्या जलावाहा:।
मुहुर्तादुत्थितो वायुर्हान्या सर्वोआपी नैऋत:।।
सभी शुभ लक्षण से संपन्न जल को धारण करने वाले जो मुख्य मेघ हैं, उन्हें भी नैऋत्य दिशा का उठा हुआ पूर्व पवन एक मुहूर्त में नष्ट कर देता हैं ।
नारद पुराण के त्रिस्कन्ध ज्योतिष सहिंता प्रकरण में ग्रह के माध्यम से वर्षा के सम्बन्ध में कहा गया हैं-
मंगल-
जिस दिन मंगल का उदय हो और उदय के नक्षत्र से दसवे, ग्यारहवे तथा बारहवे नक्षत्र में मंगल वक्र हो तो (अश्र्वमुख) नामक वक्र होता हैं। उसमें अन्न व वर्षा का नाश होता है।
बुध-
1. यदि आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा इन नक्षत्रों में बुध दृश्य हो तो वर्षा नहींं होती हैं और अकाल होता हैं ।
2. हस्त से छ: नक्षत्रों में बुध के रहने से लोक-कल्याण, सुभिक्ष व आरोग्य प्राप्ति होती हैं ।
बृहस्पति- बृहस्पति जब नक्षत्रों के उत्तर चले तो सुभिक्ष व कल्याणकारी तथा बायें हो तो विपरीत परिणाम देता हैं ।
शुक्र-
1. शुक्र जब बुध के साथ रहता हैं तब सुवृष्टि (अच्छी वर्षा) का कारक होता हैं ।
2. कृष्ण पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या में यदि शुक्र का उदय हो या अस्त हो तो पृथ्वी जल से परिपूर्ण रहती हैं।
शनि-
श्रवण, स्वाति, हस्त, आद्र्रा, भरणी और पूर्वाषाढ़ इन नक्षत्रों में विचारने वाला शनि मनुष्य के लिए सुभिक्ष व खेती की उपज बढ़ाने वाला होता है।
इस नक्षत्रीय प्रभावों और लोकोक्तियों को कम शब्दों में समेटना असम्भव है लेकिन प्रयास है आवश्यक जानकारियां सबलोग जाने!! ये एक छोटी सी कोशिस है अपने पारम्परिक और नक्षत्रीय ज्योतिष पर आधारित कृषि के ऊपर लेख की !! मैं कोई लेखक नही हूँ अतः त्रुटियां मिलेंगी !! सुधार के लिए आपलोगों का सहयोग आपेक्षित है!!
अगले भाग में मिलेंगे पारम्परिक लोकोक्तियों को लेकर!!
क्रमशः....
अनूप राय
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