#जेनरिक_बनाम_ब्रांडेड
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दवाएं हमारे अनमोल जीवन को बचाने में अहम भूमिका निभाती हैं। लेकिन, जब इन दवाओं में घालमेल होने लगे, कालाबाजारी का साया मंडराने लगे तो फिर जिंदगी पर ग्रहण लग जाता है! अफसोस है कि तमाम कवायदों के बावजूद भी गरीब को सस्ती से सस्ती दवा उपलब्ध कराने की सरकारी पहल भी धरातल पर खरी नहीं उतर पाई थी ! दवा में 'ब्रांडिंग' के नाम पर देश की गरीब जनता को लूटने का खेल जारी है...
बीमारी से ज्यादा आम आदमी 'महंगी दवाओं' के बोझ से दब रहा है। प्राइवेट दवा कपंनियों की तादाद बढ़ती जा रही है। ब्रांडिंग के खेल में जेनरिक दवाओं के महत्व को दबाया जा रहा है। जीवनदाता सफेदपोश डॉक्टरों का 'कमिशन' कई गुना बढ़ गया है। प्राइवेट दवा कंपनियों के मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव की घुसपैठ सरकारी अस्पतालों के अंदर खाने तक हो गई है और लूट का कारोबार चरम पर है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि मरीज को सस्ती दवा कैसे मिले?
जिस दिन इस देश में डॉक्टर दवाओं की बढ़ती कीमतों पर सवाल उठाना शुरू कर देंगे और दवा कंपनियों से अपना 'कट' लेना छोड़ देंगे, दवा खुद-ब-खुद सस्ती हो जाएगी। देश को 'ब्रांड' की नहीं दवा की जरूरत है। लेकिन निजी दवा कंपनियां, दवा में ब्रांडिंग के नाम पर देश को लूट रही हैं।
एक-दो दवा कंपनियों को छोड़ दिया जाए तो किसी के पास अपना रिसर्च प्रोडक्ट तक नहीं है। देश में 95 प्रतिशत बीमारियों का इलाज जेनरिक (पेटेंट फ्री) दवाओं से हो रहा है। फिर भी दवाएं महंगी हैं!
ब्रांड के नाम पर लूट का खेल! दरअसल, यह पूरा खेल ही घालमेल का है। प्राइवेट दवा कंपनियां जेनरिक और एथिकल (ब्रैंडेड) दोनों तरह की दवाएं बनाती हैं। दोनों की कंपोजिशन समान होती है और इन्हें बनाने में कोई फर्क नहीं होता है। यहां तक कि दोनों की गुणवत्ता और परफॉर्मेंस भी बराबर होती है। फर्क सिर्फ इतना है कि 'जेनरिक' दवाओं की मार्केटिंग और ब्रांडिंग पर दवा कंपनियां पैसा खर्च नहीं करती हैं और इन्हें अपनी लागत मूल्य के बाद कुछ प्रोफिट के साथ बेच देती हैं, जबकि, ब्रांडेड दवाओं के लिए जमकर मार्केटिंग की जाती है। दवा कंपनियों के एमआर डॉक्टरों को इन दवाओं को ज्यादा से ज्यादा मरीजों को प्रेस्क्राइब करने के लिए 10 से 40 फीसदी तक कमीशन और तरह-तरह के गिफ्टों से नवाजते हैं।
इसके चलते ही इन दवाओं की कीमत काफी बढ़ जाती है। आरटीआई कार्यकर्ता विनय के मुताबिक, बाजार में 80 फीसदी लोग जो खुद से दवा खरीद कर खाते हैं वो 'जेनरिक' दवा ही तो है। साल 2008 में कांग्रेसी सरकार ने जेनरिक को बढ़ावा देने के लिए जन औषधालय तो खोल दिेए लेकिन उसके मंत्रियो के भ्रष्टाचार और अदूरदर्शिता ने इस प्रोजेक्ट का सत्यानाश कर दिया और 6 साल बाद 2014 तक एक पत्ता तक नहीं मिला गरीबों को।
आज डॉक्टर एक पर्टिकुलर ब्रांड लिखता है, केमिस्ट पर्टिकुलर ब्रांड बेचता है, मरीज पर्टिकुलर ब्रांड खाता है और एक पर्टिकुलर दवा कंपनी को इसका मुनाफा मिलता है।
गरीबी अपने आप में बीमारियों का समुच्चय है। अगर आकंड़ों को देखें तो करीब 3 से 4 फीसदी लोग दवा महंगी होने की वजह से गरीबी रेखा से नहीं उबर पा रहे हैं। मतलब साफ है प्रतिवर्ष चार से पांच करोड़ लोग सिर्फ इसलिए गरीबी रेखा से नहीं निकल पा रहे हैं क्योंकि देश में स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है और दवा की कीमतें आसमान छू रही हैं?
क्या टाइम फ्रेम में बांधकर बीमारियों को देश में पटका जाता है?
जानकार अंतरराष्ट्रीय साजिश के तहत भी बीमारियों को लाए जाने की आशंका व्यक्त करते हैं। कई बार एक टाइम फ्रेम में बांधकर बीमारियों को देश में पटका जाता है। यह भी दवाओं को बेचने और बिकवाने का ही खेल है। बीमारी से ज्यादा प्रोपोगेंडा होता है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि बीमारी नहीं है। बीमारी से ज्यादा माहौल है, जिसे हम स्वाइन फ्लू के वक्त देख चुके हैं। स्वाइन फ्लू के वक्त इस तरह का माहौल बना की 'मिनिमम किट निर्धारित हो गई'। यह किट खूब बिकी भी, लेकिन यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि किन इलाकों में यह किट सबसे ज्यादा बिकी? यह किट उन्हीं इलाकों में बिकी जहां लोगों की 'बाइंग कैपिसिटी' ज्यादा थी। इस तरह भी दवाओं को बेचने और बिकवाने का 'हिडन खेल' चलता है।
आपको जानकर हैरानी होगी कि भारत में अभी तक कुल मिलाकर 12-13 दवाएं ही ईजाद हुई हैं। देश में 35 हजार करोड़ का हेल्थ बजट पास होता है। लेकिन, उसका आउटपुट क्या है? बीमारियां की संख्या लगातर बढ़ रही है। पोलियो और गिनी वर्म डिजीज को छोड़ दें तो हम किस बीमारी को देश से भगाने में सफल हुए हैं? भारत में पांच सरकारी दवा कंपनियां हैं और इनका सालाना टर्नओवर 600 करोड़ से भी कम है। जबकि इस देश का घरेलू दवा बाजार की बात करें तो वह 70 हजार करोड़ से भी ज्यादा का हो गया है। ऐसे में सरकार की भागीदारी 600 करोड़ से भी कम है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि दवा के क्षेत्र में सरकार का दखल कितना कम है?
सरकार, दवा को छोड़कर देश में सरकारी अस्पताल बना रही है, डॉक्टरों को बहाल कर रही है लेकिन सरकारी दवा की दुकानों को खोलने की दिशा में किसी भी तरह का प्रयास नहीं देखा जा रहा है। ऐसे में यह सवाल उचित ही है कि जब इस देश के गली-गली में सरकारी शराब की दुकान हो सकती है तो सरकारी दवा की क्यों नहीं?
कई बार तो ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं की कीमतों में नब्बे प्रतिशत तक का फर्क होता है। जैसे यदि ब्रांडेड दवाई की 14 गोलियों का एक पत्ता 786 रुपये का है, तो एक गोली की कीमत करीब 55 रुपये हुई। इसी सॉल्ट की जेनेरिक दवा की 10 गोलियों का पत्ता सिर्फ 59 रुपये में ही उपलब्ध है, यानी इसकी एक गोली करीब 6 रुपये में ही पड़ेगी। खास बात यह है कि किडनी, यूरिन, बर्न, दिल संबंधी रोग, न्यूरोलोजी, डायबिटीज जैसी बीमारियों में तो ब्रांडेड व जेनेरिक दवा की कीमत में बहुत ही ज्यादा अंतर देखने को मिलता है।
दवा कम्पनियां ब्रांडेड दवा से बड़ा मुनाफा कमाती हैं। दवाओं की कंपनियां अपने मेडिकल रिप्रजेंटेटिव्ज के जरिए डॉक्टरों को अपनी ब्रांडेड दवा लिखने के लिए खासे लाभ देती हैं। इसी आधार पर डॉक्टरों के नजदीकी मेडिकल स्टोर को दवा की आपूर्ति होती है। यही वजह है कि ब्रांडेड दवाओं का कारोबार दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा है। यही वजह है कि डॉक्टर जेनेरिक दवा लिखते ही नहीं हैं। जानकारी होने पर कोई व्यक्ति अगर केमिस्ट की दुकान से जेनेरिक दवा मांग भी ले तो दवा विक्रेता इनकी उपलब्धता से इंकार कर देते हैं।
देश के ज्यादातर बड़े शहरों में एक्सक्लुसिव जेनेरिक मेडिकल स्टोर होते हैं, लेकिन इनका व्यापक प्रचार नहीं होने से लोगों को इनका फायदा नहीं मिलता आजकल हर प्रकार की जानकारी इंटरनेट के जरिये आसानी से हासिल की जा सकती है। ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं की कीमत में अंतर का पता लगाने के लिए एक मोबाइल एप 'समाधान और हैल्थकार्ट' भी बाजार में उपलब्ध है। दरकार है कि लोग जेनेरिक दवाओं के बारे में जानें और खासतौर पर गरीबों को इस ओर जागरूक करें ताकि वे दवा कंपनियों के मकडज़ाल में न फंसें।
लाभ!
जैनरिक दवाईयां ब्राण्डेड दवाईयों की तुलना में औसतन पाँच गुना सस्ती होती है। जैनरिक दवाईयों की उपलब्धता आम व्यक्ति को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करने में बहुत बड़ा योगदान प्रदान कर सकती है तथा इससे ब्राण्डेड कम्पनियों के एकाधिकार को चुनौती मिलेगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जैनरिक दवाईयों के लिखे जाने पर केवल धनी देशों में चिकित्सा व्यय पर 70 प्रतिशत तक कमी आ जायेगी तथा गरीब देशों के चिकित्सा व्यय में यह कमी और भी ज्यादा होगी।
जेनेरिक दवाएं उत्पादक से सीधे रिटेलर तक पहुंचती हैं। इन दवाओं के प्रचार-प्रसार पर कंपनियों को कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। एक ही कंपनी की पेटेंट और जेनेरिक दवाओं के मूल्य में काफी अंतर होता है। चूंकि जेनेरिक दवाओं के मूल्य निर्धारण पर सरकारी अंकुश होता है, अत: वे सस्ती होती हैं, जबकि पेटेंट दवाओं की कीमत कंपनियां खुद तय करती हैं, इसलिए वे महंगी होती हैं।
उदाहरण के लिए यदि चिकित्सक ने रक्त कैंसर के किसी रोगी के लिए ‘ग्लाईवैक‘ ब्राण्ड की दवा लिखी है तो महीने भर के कोर्स की कीमत 1,14,400 रूपये होगी, जबकि उसी दवा के दूसरे ब्राण्ड ‘वीनेट‘ की महीने भर के कोर्स की कीमत अपेक्षाकृत काफी कम 11,400 रूपये होगी। सिप्ला इस दवा के समकक्ष जैनरिक दवा ‘इमीटिब‘ 8,000 रूपये में और ग्लेनमार्क केवल 5,720 रूपये में मुहैया करवाती है।
इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए मोदी जी ने देश के हर कोने में "प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र" खोलने के लिए बजट में एक प्रस्ताव दिया! आपको जान कर खुशी होगी कि हर देश के हर जिलों और तहसीलों में इस केंद्र का उदघाटन हो चुका है और वहाँ सस्ती दवाइयां मिल रही हैं। अगले कुछ वर्षों में ये दुकानें हर गांव गांव में होंगी, ऐसी सरकार की परिकल्पना है जो निश्चित ही मूर्त रूप लेगी।
एक उदाहरण बताता हूँ! मैं अपनी माता जी के लिए पेंटाप्राजोल डी एस आर कैप्सूल 100 रुपये 10 गोली किसी ब्रांडेड कम्पनी की खरीदता था! इसी कम्पोजिशन की दवा इस केंद्र पर मात्र 18 रूपये की 10 गोली है।
लगभग साढ़े पांच गुना महंगी है ब्रांडेड दवाई !
दोनो का काम एक जैसा !
नियम और भी बन रहे हैं। चिकित्सक फ्रैटर्निटी द्वारा इन नियमों का compliance एक चुनौती है। उम्मीद है, हम ऐसी चेतना जागृत कर पाएंगे जहाँ, लोग केवल इसलिए अपने बच्चों को डॉक्टर नहीं बनाना चाहेंगे कि वे दो चार सालों में पैसे के पेड़ बन कर नोटों की पत्तियां झाड़ने लगें। उम्मीद है, उम्मीद पर दुनिया कायम है। तमाम उम्मीदों में एक यह भी कि इस देश के डॉक्टर्स समझेंगे कि उनसे समाज की अपेक्षाएँ क्या हैं?
अनूप राय
23/07/18
(थोड़े सम्पादन के साथ)
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दवाएं हमारे अनमोल जीवन को बचाने में अहम भूमिका निभाती हैं। लेकिन, जब इन दवाओं में घालमेल होने लगे, कालाबाजारी का साया मंडराने लगे तो फिर जिंदगी पर ग्रहण लग जाता है! अफसोस है कि तमाम कवायदों के बावजूद भी गरीब को सस्ती से सस्ती दवा उपलब्ध कराने की सरकारी पहल भी धरातल पर खरी नहीं उतर पाई थी ! दवा में 'ब्रांडिंग' के नाम पर देश की गरीब जनता को लूटने का खेल जारी है...
बीमारी से ज्यादा आम आदमी 'महंगी दवाओं' के बोझ से दब रहा है। प्राइवेट दवा कपंनियों की तादाद बढ़ती जा रही है। ब्रांडिंग के खेल में जेनरिक दवाओं के महत्व को दबाया जा रहा है। जीवनदाता सफेदपोश डॉक्टरों का 'कमिशन' कई गुना बढ़ गया है। प्राइवेट दवा कंपनियों के मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव की घुसपैठ सरकारी अस्पतालों के अंदर खाने तक हो गई है और लूट का कारोबार चरम पर है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि मरीज को सस्ती दवा कैसे मिले?
जिस दिन इस देश में डॉक्टर दवाओं की बढ़ती कीमतों पर सवाल उठाना शुरू कर देंगे और दवा कंपनियों से अपना 'कट' लेना छोड़ देंगे, दवा खुद-ब-खुद सस्ती हो जाएगी। देश को 'ब्रांड' की नहीं दवा की जरूरत है। लेकिन निजी दवा कंपनियां, दवा में ब्रांडिंग के नाम पर देश को लूट रही हैं।
एक-दो दवा कंपनियों को छोड़ दिया जाए तो किसी के पास अपना रिसर्च प्रोडक्ट तक नहीं है। देश में 95 प्रतिशत बीमारियों का इलाज जेनरिक (पेटेंट फ्री) दवाओं से हो रहा है। फिर भी दवाएं महंगी हैं!
ब्रांड के नाम पर लूट का खेल! दरअसल, यह पूरा खेल ही घालमेल का है। प्राइवेट दवा कंपनियां जेनरिक और एथिकल (ब्रैंडेड) दोनों तरह की दवाएं बनाती हैं। दोनों की कंपोजिशन समान होती है और इन्हें बनाने में कोई फर्क नहीं होता है। यहां तक कि दोनों की गुणवत्ता और परफॉर्मेंस भी बराबर होती है। फर्क सिर्फ इतना है कि 'जेनरिक' दवाओं की मार्केटिंग और ब्रांडिंग पर दवा कंपनियां पैसा खर्च नहीं करती हैं और इन्हें अपनी लागत मूल्य के बाद कुछ प्रोफिट के साथ बेच देती हैं, जबकि, ब्रांडेड दवाओं के लिए जमकर मार्केटिंग की जाती है। दवा कंपनियों के एमआर डॉक्टरों को इन दवाओं को ज्यादा से ज्यादा मरीजों को प्रेस्क्राइब करने के लिए 10 से 40 फीसदी तक कमीशन और तरह-तरह के गिफ्टों से नवाजते हैं।
इसके चलते ही इन दवाओं की कीमत काफी बढ़ जाती है। आरटीआई कार्यकर्ता विनय के मुताबिक, बाजार में 80 फीसदी लोग जो खुद से दवा खरीद कर खाते हैं वो 'जेनरिक' दवा ही तो है। साल 2008 में कांग्रेसी सरकार ने जेनरिक को बढ़ावा देने के लिए जन औषधालय तो खोल दिेए लेकिन उसके मंत्रियो के भ्रष्टाचार और अदूरदर्शिता ने इस प्रोजेक्ट का सत्यानाश कर दिया और 6 साल बाद 2014 तक एक पत्ता तक नहीं मिला गरीबों को।
आज डॉक्टर एक पर्टिकुलर ब्रांड लिखता है, केमिस्ट पर्टिकुलर ब्रांड बेचता है, मरीज पर्टिकुलर ब्रांड खाता है और एक पर्टिकुलर दवा कंपनी को इसका मुनाफा मिलता है।
गरीबी अपने आप में बीमारियों का समुच्चय है। अगर आकंड़ों को देखें तो करीब 3 से 4 फीसदी लोग दवा महंगी होने की वजह से गरीबी रेखा से नहीं उबर पा रहे हैं। मतलब साफ है प्रतिवर्ष चार से पांच करोड़ लोग सिर्फ इसलिए गरीबी रेखा से नहीं निकल पा रहे हैं क्योंकि देश में स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है और दवा की कीमतें आसमान छू रही हैं?
क्या टाइम फ्रेम में बांधकर बीमारियों को देश में पटका जाता है?
जानकार अंतरराष्ट्रीय साजिश के तहत भी बीमारियों को लाए जाने की आशंका व्यक्त करते हैं। कई बार एक टाइम फ्रेम में बांधकर बीमारियों को देश में पटका जाता है। यह भी दवाओं को बेचने और बिकवाने का ही खेल है। बीमारी से ज्यादा प्रोपोगेंडा होता है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि बीमारी नहीं है। बीमारी से ज्यादा माहौल है, जिसे हम स्वाइन फ्लू के वक्त देख चुके हैं। स्वाइन फ्लू के वक्त इस तरह का माहौल बना की 'मिनिमम किट निर्धारित हो गई'। यह किट खूब बिकी भी, लेकिन यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि किन इलाकों में यह किट सबसे ज्यादा बिकी? यह किट उन्हीं इलाकों में बिकी जहां लोगों की 'बाइंग कैपिसिटी' ज्यादा थी। इस तरह भी दवाओं को बेचने और बिकवाने का 'हिडन खेल' चलता है।
आपको जानकर हैरानी होगी कि भारत में अभी तक कुल मिलाकर 12-13 दवाएं ही ईजाद हुई हैं। देश में 35 हजार करोड़ का हेल्थ बजट पास होता है। लेकिन, उसका आउटपुट क्या है? बीमारियां की संख्या लगातर बढ़ रही है। पोलियो और गिनी वर्म डिजीज को छोड़ दें तो हम किस बीमारी को देश से भगाने में सफल हुए हैं? भारत में पांच सरकारी दवा कंपनियां हैं और इनका सालाना टर्नओवर 600 करोड़ से भी कम है। जबकि इस देश का घरेलू दवा बाजार की बात करें तो वह 70 हजार करोड़ से भी ज्यादा का हो गया है। ऐसे में सरकार की भागीदारी 600 करोड़ से भी कम है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि दवा के क्षेत्र में सरकार का दखल कितना कम है?
सरकार, दवा को छोड़कर देश में सरकारी अस्पताल बना रही है, डॉक्टरों को बहाल कर रही है लेकिन सरकारी दवा की दुकानों को खोलने की दिशा में किसी भी तरह का प्रयास नहीं देखा जा रहा है। ऐसे में यह सवाल उचित ही है कि जब इस देश के गली-गली में सरकारी शराब की दुकान हो सकती है तो सरकारी दवा की क्यों नहीं?
कई बार तो ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं की कीमतों में नब्बे प्रतिशत तक का फर्क होता है। जैसे यदि ब्रांडेड दवाई की 14 गोलियों का एक पत्ता 786 रुपये का है, तो एक गोली की कीमत करीब 55 रुपये हुई। इसी सॉल्ट की जेनेरिक दवा की 10 गोलियों का पत्ता सिर्फ 59 रुपये में ही उपलब्ध है, यानी इसकी एक गोली करीब 6 रुपये में ही पड़ेगी। खास बात यह है कि किडनी, यूरिन, बर्न, दिल संबंधी रोग, न्यूरोलोजी, डायबिटीज जैसी बीमारियों में तो ब्रांडेड व जेनेरिक दवा की कीमत में बहुत ही ज्यादा अंतर देखने को मिलता है।
दवा कम्पनियां ब्रांडेड दवा से बड़ा मुनाफा कमाती हैं। दवाओं की कंपनियां अपने मेडिकल रिप्रजेंटेटिव्ज के जरिए डॉक्टरों को अपनी ब्रांडेड दवा लिखने के लिए खासे लाभ देती हैं। इसी आधार पर डॉक्टरों के नजदीकी मेडिकल स्टोर को दवा की आपूर्ति होती है। यही वजह है कि ब्रांडेड दवाओं का कारोबार दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा है। यही वजह है कि डॉक्टर जेनेरिक दवा लिखते ही नहीं हैं। जानकारी होने पर कोई व्यक्ति अगर केमिस्ट की दुकान से जेनेरिक दवा मांग भी ले तो दवा विक्रेता इनकी उपलब्धता से इंकार कर देते हैं।
देश के ज्यादातर बड़े शहरों में एक्सक्लुसिव जेनेरिक मेडिकल स्टोर होते हैं, लेकिन इनका व्यापक प्रचार नहीं होने से लोगों को इनका फायदा नहीं मिलता आजकल हर प्रकार की जानकारी इंटरनेट के जरिये आसानी से हासिल की जा सकती है। ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं की कीमत में अंतर का पता लगाने के लिए एक मोबाइल एप 'समाधान और हैल्थकार्ट' भी बाजार में उपलब्ध है। दरकार है कि लोग जेनेरिक दवाओं के बारे में जानें और खासतौर पर गरीबों को इस ओर जागरूक करें ताकि वे दवा कंपनियों के मकडज़ाल में न फंसें।
लाभ!
जैनरिक दवाईयां ब्राण्डेड दवाईयों की तुलना में औसतन पाँच गुना सस्ती होती है। जैनरिक दवाईयों की उपलब्धता आम व्यक्ति को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करने में बहुत बड़ा योगदान प्रदान कर सकती है तथा इससे ब्राण्डेड कम्पनियों के एकाधिकार को चुनौती मिलेगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जैनरिक दवाईयों के लिखे जाने पर केवल धनी देशों में चिकित्सा व्यय पर 70 प्रतिशत तक कमी आ जायेगी तथा गरीब देशों के चिकित्सा व्यय में यह कमी और भी ज्यादा होगी।
जेनेरिक दवाएं उत्पादक से सीधे रिटेलर तक पहुंचती हैं। इन दवाओं के प्रचार-प्रसार पर कंपनियों को कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। एक ही कंपनी की पेटेंट और जेनेरिक दवाओं के मूल्य में काफी अंतर होता है। चूंकि जेनेरिक दवाओं के मूल्य निर्धारण पर सरकारी अंकुश होता है, अत: वे सस्ती होती हैं, जबकि पेटेंट दवाओं की कीमत कंपनियां खुद तय करती हैं, इसलिए वे महंगी होती हैं।
उदाहरण के लिए यदि चिकित्सक ने रक्त कैंसर के किसी रोगी के लिए ‘ग्लाईवैक‘ ब्राण्ड की दवा लिखी है तो महीने भर के कोर्स की कीमत 1,14,400 रूपये होगी, जबकि उसी दवा के दूसरे ब्राण्ड ‘वीनेट‘ की महीने भर के कोर्स की कीमत अपेक्षाकृत काफी कम 11,400 रूपये होगी। सिप्ला इस दवा के समकक्ष जैनरिक दवा ‘इमीटिब‘ 8,000 रूपये में और ग्लेनमार्क केवल 5,720 रूपये में मुहैया करवाती है।
इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए मोदी जी ने देश के हर कोने में "प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र" खोलने के लिए बजट में एक प्रस्ताव दिया! आपको जान कर खुशी होगी कि हर देश के हर जिलों और तहसीलों में इस केंद्र का उदघाटन हो चुका है और वहाँ सस्ती दवाइयां मिल रही हैं। अगले कुछ वर्षों में ये दुकानें हर गांव गांव में होंगी, ऐसी सरकार की परिकल्पना है जो निश्चित ही मूर्त रूप लेगी।
एक उदाहरण बताता हूँ! मैं अपनी माता जी के लिए पेंटाप्राजोल डी एस आर कैप्सूल 100 रुपये 10 गोली किसी ब्रांडेड कम्पनी की खरीदता था! इसी कम्पोजिशन की दवा इस केंद्र पर मात्र 18 रूपये की 10 गोली है।
लगभग साढ़े पांच गुना महंगी है ब्रांडेड दवाई !
दोनो का काम एक जैसा !
नियम और भी बन रहे हैं। चिकित्सक फ्रैटर्निटी द्वारा इन नियमों का compliance एक चुनौती है। उम्मीद है, हम ऐसी चेतना जागृत कर पाएंगे जहाँ, लोग केवल इसलिए अपने बच्चों को डॉक्टर नहीं बनाना चाहेंगे कि वे दो चार सालों में पैसे के पेड़ बन कर नोटों की पत्तियां झाड़ने लगें। उम्मीद है, उम्मीद पर दुनिया कायम है। तमाम उम्मीदों में एक यह भी कि इस देश के डॉक्टर्स समझेंगे कि उनसे समाज की अपेक्षाएँ क्या हैं?
अनूप राय
23/07/18
(थोड़े सम्पादन के साथ)
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